Saturday, May 5, 2018

आखिर क्यूँ

आखिर क्यूँ सो रही है हमारी आत्मा , क्यूँ सुप्त है हमारा दिमाग !
जागते क्यूँ नहीं हैं हम देख कर भी चारों तरफ नफरत की आग !
खेल रहें है कुछ लोग हमसे बना कर हमें ही कठपुतलियां
कातर त्रस्त है जनता  और नेता गण मना रहे  है रंगरलियाँ
सहमा सिहरा सिमटा है बचपन और त्रासदी में घिरी है जवानी
नवजात हो या हो वो नवयौवना सबके डर की एक ही कहानी
रोटी कपडा और मकान की अब बात करते नहीं है पालनहार
धर्म जाति के नाम पर बस सब  कर रहे एक दूजे पर प्रहार
उन्नति प्रगति उद्योग धंधे इन सबकी अब नहीं होती कोई बात
भ्रष्टाचार व्याभिचार में लिप्त कुशासक करते हम पर ही घात
सन सत्तावन की फिर आज जरूरत आ पड़ी है अपनी माता को
किसी विदेशी से नहीं अब संहारना है हमें अपने ही भीतर घातों को .

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